Document Abstract
बाजारीकरण और भूमंडलीकरण के वर्तमान युग में आदिवासियों के समक्ष अपनी कला, संस्कृति, सामाजिक व्यवस्था, रीति-रिवाज और परंपराओं को बचाने का बहुत बड़ा संकट खड़ा हो गया है। जनजातियों के समक्ष आज दोहरी समस्या है। एक तरफ वे अत्यंत अविकसित अवस्था में हैं और जीवन के सर्वागीण विकास हेतु प्रयासरत हैं, वहीं दूसरी तरफ उन्हें अपनी मौलिक पहचान को बनाये रखने के लिए भी लड़ाई लड़नी पड़ रही है। गरीबी और लगातार हो रहे शोषण के चलते आदिवासी समाज शेष समाज की मुख्य धारा से नहीं जुड़ पाया है। आदिवासी और तथाकथित सभ्य समाज के बीच इस वैषम्य ने उनके अंदर विद्रोह और अलगाववाद की भावना को जन्म दिया है। छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, ओड़िशा, झारखण्ड, तेलंगाना इत्यादि राज्यों के अनेक जिलों में 'नक्सली समस्या' को भी हताशा और उपेक्षा से उपजी कार्यवाही बताया जा सकता है। नक्सली गतिविधियाँ जहाँ देश के लिए चुनौती हैं वहीं इनसे आम आदिवासी भी बुरी तरह प्रभावित हुआ है। आज हमें आदिवासी संस्कृति की रक्षा, भूख से मुक्ति और विस्थापन के बाद उनके पुनर्वास पर विषेष ध्यान देना होगा साथ ही उनके लिए रोजगार के नये अवसर सृजित करने होंगे। भेदभाव रहित और समतामूलक समाज के लिए हमें आदिवासी विकास की रणनीति में व्यापक परिवर्तन करना होगा।